प्रस्तावना:
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी का भारत राजनीतिक अस्थिरता और संघर्ष का काल था। इस समय राजपूत शासक उत्तर भारत के प्रमुख राजनीतिक बल के रूप में उभरे, लेकिन वे एक संगठित और स्थायी साम्राज्य स्थापित करने में असफल रहे। दूसरी ओर तुर्कों ने सैन्य कौशल, रणनीति और संगठन के बल पर धीरे-धीरे उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया। फलस्वरूप, राजपूत शक्ति का पतन हुआ और भारत में दिल्ली सल्तनत की नींव पड़ी।
राजपूतों की आपसी कलह और एकता का अभाव
- राजपूत राज्यों की सबसे बड़ी कमजोरी उनकी आपसी कलह और आंतरिक संघर्ष था।
- चौहान, सोलंकी, राठौर, परमार जैसे अनेक वंश सत्ता और विस्तार के लिए आपस में युद्धरत रहते थे।
- इसने राजपूतों की राजनीतिक शक्ति और सैनिक संगठन को कमजोर कर दिया।
- तुर्क आक्रमणकारियों ने इसी अवसर का लाभ उठाया।
सामंती ढाँचा और विकेंद्रीकरण
- राजपूत शासन सामंती संरचना पर आधारित था।
- सामंतों और जमींदारों को अत्यधिक अधिकार प्राप्त थे, जिससे केन्द्रीय सत्ता कमजोर पड़ी।
- युद्ध काल में इन सामंतों का सहयोग अनिश्चित होता था, जिससे एक संगठित साम्राज्य की रक्षा कठिन हो गई।
सैन्य कमजोरी और नवीन युद्ध तकनीक का अभाव
- तुर्कों की तुलना में राजपूतों की सेनाएँ तकनीकी और संगठनात्मक दृष्टि से कमजोर थीं।
- तुर्क घुड़सवार सेना, तीरंदाजी और चालाक रणनीति में निपुण थे।
- दूसरी ओर राजपूत मुख्यतः हाथी और भारी पैदल सेना पर निर्भर रहते, जो धीमी और बोझिल थी।
- इससे युद्ध में तुर्कों को बढ़त मिलती रही।
तुर्क आक्रमण और रणनीति
- महमूद ग़ज़नी ने 17 बार भारत पर आक्रमण कर यहाँ की धन-संपत्ति को लूटा और राजपूतों की कमजोरी उजागर की।
- इसके बाद मोहम्मद गौरी ने उत्तर भारत पर अपने स्थायी अधिकार की योजना बनाई।
- गौरी ने संगठित सेना और रणनीति द्वारा राजपूतों को कई बार चुनौती दी।
1192 की तराइन की दूसरी लड़ाई
- 1192 ईस्वी में तराइन की दूसरी लड़ाई निर्णायक सिद्ध हुई।
- पृथ्वीराज चौहान तुर्क सेनापति मोहम्मद गौरी से पराजित हुए।
- इस विजय से तुर्कों को उत्तर भारत में स्थायी सत्ता स्थापित करने का मार्ग मिल गया।
- राजपूतों की पराजय भारतीय इतिहास का एक बड़ा मोड़ सिद्ध हुई।
दिल्ली सल्तनत की स्थापना
- तराइन की विजय के बाद गौरी का सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली का शासक बना।
- यही दिल्ली सल्तनत (1206 ई.) का प्रारंभिक चरण था।
- तुर्कों का शासन संगठित सेना, केंद्रीकृत प्रशासन और नई युद्ध रणनीतियों से लैस था, जिसने राजपूत शक्ति को पीछे छोड़ दिया।
निष्कर्ष:
राजपूत शक्ति का पतन उनकी आंतरिक कलह, सामंती विकेंद्रीकरण और युद्धनीति में कमी के कारण हुआ। दूसरी ओर तुर्कों की संगठित सेना, घुड़सवारी और तीरंदाजी जैसी आधुनिक तकनीकों ने उन्हें सामरिक बढ़त दिलाई। 1192 ईस्वी की तराइन की दूसरी लड़ाई ने राजपूत प्रभुत्व को समाप्त कर दिया और भारत में तुर्क शासन की नींव डाली। यही आगे चलकर दिल्ली सल्तनत के रूप में विकसित हुआ, जिसने भारतीय इतिहास को मध्यकाल की ओर अग्रसर किया।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न (MCQS) और उत्तर
प्रश्न 1. ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में उत्तर भारत में राजपूत शासकों की सबसे बड़ी कमजोरी क्या थी?
(a) विदेशी व्यापार का अभाव
(b) आपसी कलह और एकता का अभाव
(c) कृषि व्यवस्था की अव्यवस्था
(d) धार्मिक असहमति
उत्तर: (b) आपसी कलह और एकता का अभाव
व्याख्या: राजपूत शासकों की मुख्य कमजोरी उनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता और आंतरिक कलह थी। चौहान, सोलंकी, राठौर, परमार आदि राज्य आपस में युद्धरत रहे, जिससे न तो केंद्रीय सत्ता मजबूत हो सकी और न ही स्थायी साम्राज्य का निर्माण। इस विखंडन का लाभ तुर्कों ने उठाया और उनकी संगठित सेनाओं ने कमजोर राजपूतों को पराजित कर दिया।
प्रश्न 2. तुर्क सेनाओं की सबसे बड़ी सामरिक विशेषता क्या थी, जिसने उन्हें राजपूतों पर बढ़त दिलाई?
(a) नौसैनिक शक्ति
(b) हाथी आधारित सेना
(c) घुड़सवार सेना और तीरंदाजी
(d) प्राचीन युद्ध परंपराएँ
उत्तर: (c) घुड़सवार सेना और तीरंदाजी
व्याख्या: तुर्क सेना घुड़सवारी और तीरंदाजी की कुशलता में निपुण थी। वे हल्की और गतिशील सेनाओं का उपयोग करते थे, जो रणक्षेत्र में शीघ्र गति से आ-जा सकती थीं। इसके विपरीत राजपूत मुख्यतः हाथी और पैदल सेना पर निर्भर थे, जो भारी और धीमी थी। इस सामरिक अंतर के कारण तुर्क युद्धों में प्रभावी सिद्ध हुए और आसानी से विजय प्राप्त की।
प्रश्न 3. 1192 ईस्वी में हुई तराइन की दूसरी लड़ाई में कौन-सा परिणाम सामने आया?
(a) पृथ्वीराज चौहान की विजय
(b) चौहान और गौरी के बीच संधि
(c) पृथ्वीराज चौहान की पराजय
(d) मोहम्मद गौरी की वापसी
उत्तर: (c) पृथ्वीराज चौहान की पराजय
व्याख्या: तराइन की दूसरी लड़ाई (1192 ईस्वी) भारतीय इतिहास का निर्णायक मोड़ साबित हुई। इसमें मोहम्मद गौरी ने संगठित सेना और चालाक रणनीति के बल पर पृथ्वीराज चौहान को हराया। इस विजय ने तुर्कों को उत्तर भारत में स्थायी राजनीतिक सत्ता स्थापित करने का मार्ग दिखाया। यही पराजय अंततः दिल्ली सल्तनत की नींव का आधार बनी और राजपूत प्रभुत्व का अंत हुआ।
प्रश्न 4. दिल्ली सल्तनत की वास्तविक स्थापना किसके शासनकाल में मानी जाती है?
(a) महमूद ग़ज़नी
(b) पृथ्वीराज चौहान
(c) कुतुबुद्दीन ऐबक
(d) इल्तुतमिश
उत्तर: (c) कुतुबुद्दीन ऐबक
व्याख्या: तराइन युद्ध के बाद मोहम्मद गौरी का सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली का शासक बना। 1206 ईस्वी में उसकी गद्दी पर बैठने से ही दिल्ली सल्तनत की औपचारिक स्थापना मानी जाती है। ऐबक ने केंद्रीकृत प्रशासन की नींव रखी और तुर्क शासन का प्रारंभिक स्वरूप विकसित किया। इसलिए भारतीय इतिहास में वह दिल्ली सल्तनत का संस्थापक माना जाता है।
प्रश्न 5. राजपूत शक्ति के पतन का मुख्य कारण निम्नलिखित में से कौन-सा था?
(a) धार्मिक मतभेद
(b) सामंती ढांचे और विकेंद्रीकरण की कमजोरी
(c) विदेशी यात्राओं का अभाव
(d) भाषा और साहित्यिक स्थिरता
उत्तर: (b) सामंती ढांचे और विकेंद्रीकरण की कमजोरी
व्याख्या: राजपूत शासन सामंती व्यवस्था पर आधारित था, जिसमें सामंतों और जमींदारों को अत्यधिक शक्ति प्राप्त थी। युद्धकाल में उनका सहयोग अनिश्चित रहता था, जिससे केंद्रीय सत्ता कमजोर होती गई। इस विकेंद्रीकरण ने एक मजबूत और संगठित साम्राज्य का निर्माण कठिन बना दिया। तुर्कों ने इस राजनीतिक कमजोरी का भरपूर लाभ उठाकर अपना प्रभुत्व स्थापित किया, जिसका परिणाम दिल्ली सल्तनत के रूप में सामने आया।