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चोल राजवंश का इतिहास

प्रस्तावना:

चोल राजवंश, जिसकी स्थापना विजयालय चोल ने 9वीं शताब्दी (लगभग 850 ईस्वी) में की, दक्षिण भारत के सबसे शक्तिशाली और दीर्घकालीन राजवंशों में से एक था। इसकी राजधानी तंजावुर थी और साम्राज्य का विस्तार श्रीलंका, मालदीव और बंगाल की खाड़ी तक फैला। स्थापत्य कला, समुद्री व्यापार और नौसैनिक शक्ति के लिए प्रसिद्ध यह वंश सांस्कृतिक और राजनीतिक उत्कर्ष का प्रतीक बना।

स्थापना और कालखंड:

  • चोल राजवंश की स्थापना विजयालय चोल ने 9वीं शताब्दी में लगभग 850 ईस्वी में की थी।
  • यह राजवंश लगभग 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक लगभग 400-500 वर्षों तक शासन करता रहा।

राजधानी और क्षेत्र:

  • राजवंश की प्रमुख राजधानी तंजावुर (तंजौर) थी।
  • चोल साम्राज्य का प्रभाव दक्षिण भारत, पांड्य प्रदेश, केरल से लेकर बंगाल की खाड़ी तक और श्रीलंका तथा मालदीव तक फैला था।
  • समुद्री युद्ध और व्यापार के लिए भी चोलों की पहचान बनी।

संस्थापक:

  • विजयालय चोल, जिन्होंने पल्लवों को हराकर तंजावुर पर कब्जा किया और चोल राजवंश को पुनर्स्थापित किया।

प्रमुख शासक और उनके कार्य:

विजयालय चोल (850-870 ई.):

  • चोल साम्राज्य के पुनरुत्थान के साथ प्रारंभिक विस्तार।
  • पल्लवों और पांड्यों के बीच सत्ता संघर्ष का लाभ उठाया।

आदित्य प्रथम (870-907 ई.):

  • पल्लवों, पांड्यों और अन्य प्रतिद्वंद्वियों पर विजय प्राप्त कर साम्राज्य मजबूत किया।

परांतक प्रथम (907-955 ई.):

  • कई पड़ोसी राज्यों जैसे पल्लव, बाण, राष्ट्रकूट इत्यादि को हराया।
  • सांस्कृतिक और स्थापत्य कार्यों को बढ़ावा दिया।

राजराज चोल प्रथम (985-1014 ई.):

  • चोल साम्राज्य को उसका चरमोत्कर्ष दिलाया।
  • श्रीलंका और मालदीव समेत कई समुद्री क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की।
  • तंजावुर में विश्व प्रसिद्ध बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया।

राजेंद्र चोल प्रथम (1014-1044 ई.):

  • अपने पिता राजराज चोल की योजनाओं को आगे बढ़ाया।
  • गंगा नदी तक विजय प्राप्त कर गंगापल थेनाम की स्थापना की।
  • समुद्री विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कुलोतुंग चोल, राजाधिराज चोल आदि बाद के शासक भी महत्व रखते हैं।

प्रमुख उपलब्धियाँ:

  • दक्षिण भारत में सबसे लंबे समय तक प्रभावशाली शासन।
  • स्थापत्य कला में उत्कृष्टता, विशेषकर मंदिर (बृहदेश्वर मंदिर) और मूर्तिकला।
  • समुद्री व्यापार और नौसैनिक शक्ति का विकास।
  • कला, साहित्य और संस्कृति में अपार योगदान।

पतन के कारण:

  • 13वीं शताब्दी के प्रारंभ में पांड्य वंश के आक्रमण।
  • मुस्लिम आक्रमणों का प्रभाव।
  • आंतरिक विवाद और साम्राज्य के विभाजित होने से कमजोरी।
  • धीरे-धीरे चोल साम्राज्य का प्रभाव समाप्त हो गया।

महत्व:

  • दक्षिण भारत के इतिहास में सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वर्ण युग।
  • समुद्री साम्राज्य के रूप में भारत का प्रभाव बढ़ाना।
  • वास्तुकला, कला, साहित्य और राजनयिक संबंधों में अमूल्य योगदान।

सारांश:

चोल राजवंश (9वीं–13वीं शताब्दी) दक्षिण भारत का स्वर्ण युग माना जाता है। राजराज चोल और राजेंद्र चोल के समय में साम्राज्य ने चरमोत्कर्ष प्राप्त कर श्रीलंका, गंगा क्षेत्र और समुद्री क्षेत्रों तक प्रभुत्व फैलाया। बृहदेश्वर मंदिर जैसे स्थापत्य चमत्कार, साहित्य और नौसैनिक शक्ति इसकी विशेष उपलब्धियाँ थीं। पांड्य और मुस्लिम आक्रमणों, आंतरिक संघर्ष और विभाजन के कारण अंततः इसका पतन हुआ।

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