प्रस्तावना:
गढ़वाल की शासिका रानी कर्णावती 17वीं शताब्दी में वीरता, साहस और धैर्य का प्रतीक रहीं। महिपति शाह के बाद उनके नाबालिग पुत्र पृथ्वीपति शाह के संरक्षक रूप में उन्होंने राज्य संभाला और मुगलों से संघर्ष करते हुए गौरवशाली उदाहरण प्रस्तुत किया।
संरक्षिका की भूमिका: 1635 से 1640 तक रानी कर्णावती ने अपने पुत्र पृथ्वीपति शाह के अल्पायु होने पर शासन संभाला।
मुगलों से संघर्ष: शाहजहाँ की सेना (एक लाख पैदल व तीस हजार घुड़सवार) ने 1636 में आक्रमण किया, किंतु कर्णावती ने गढ़वाल के वीर सेनाओं के साथ उसे बुरी तरह पराजित किया।
नाक काटने की परंपरा: बचे हुए मुगल सैनिकों की नाक-कान कटवा दिए गए। इसीलिए कर्णावती नाककाटी रानी के नाम से प्रसिद्ध हुईं।
विदेशी विवरण में उल्लेख: अब्दुल हमीद लाहौरी की पादशाहनामा, शमशुद्दौला खान की मासिर-उल-उमरा तथा यूरोपीय यात्री निकोलस मनूची ने अपने विवरणों में कर्णावती के युद्धों का उल्लेख किया है।
रणनीतिक एवं धार्मिक कार्य: कर्णावती ने न केवल युद्ध लड़े बल्कि बिनसर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और देवता को समर्पण स्वरूप नया शिखर निर्मित कराया।
तुलनाएँ और महत्व: इतिहासकारों ने कर्णावती की तुलना रानी दुर्गावती और ताराबाई से की है। उनकी वीरता गढ़वाल के गौरवशाली इतिहास की प्रतीक है।
निष्कर्ष:
रानी कर्णावती ने अपने साहस और रणनीति से गढ़वाल की स्वतंत्रता को लंबे समय तक सुरक्षित रखा। उनकी वीरता ने उन्हें उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास में अद्वितीय स्थान प्रदान किया।