प्रस्तावना:
हिमालयी क्षेत्र, अपनी विविध स्थलाकृति, जलवायु और समृद्ध जैव विविधता के साथ, सदियों से स्थानीय समुदायों के लिए कृषि का आधार रहा है। यहाँ की पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ, जैसे सीढ़ीदार खेती (terracing) और मिश्रित फसल (mixed cropping), स्थानीय पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल होती थीं और स्थानीय लोगों ने पारिस्थितिकी तंत्र के साथ एक सामंजस्यपूर्ण संबंध बनाए रखा। हाल के दशकों में, जनसंख्या वृद्धि, बाजार की मांग, सरकारी नीतियों और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण हिमालय में कृषि पद्धतियों में महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। ये बदलाव, जहाँ एक ओर कुछ आर्थिक लाभ प्रदान कर सकते हैं, वहीं दूसरी ओर उनके गंभीर पर्यावरणीय निहितार्थ भी हैं, जो इस नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र और स्थानीय समुदायों की दीर्घकालिक स्थिरता को खतरे में डाल रहे हैं।
हिमालय में बदलती कृषि पद्धतियों और उनके पर्यावरणीय निहितार्थ:
पारंपरिक से गहन कृषि की ओर बदलाव:
- पारंपरिक: पहले, हिमालयी कृषि मुख्य रूप से निर्वाह-आधारित थी, जिसमें स्थानीय अनाज, दालें और सब्जियाँ उगाई जाती थीं। सीढ़ीदार खेती, मिश्रित फसल और पशुधन का एकीकरण आम था, जो मिट्टी के स्वास्थ्य को बनाए रखता था।
- बदलाव: अब, बाजार-उन्मुख नकदी फसलों (जैसे टमाटर, आलू, अदरक, सेब) की खेती बढ़ रही है। यह एकल फसल (monoculture) और रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के गहन उपयोग पर निर्भर करती है।
रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का बढ़ता उपयोग:
- निहितार्थ: नकदी फसलों के लिए अधिक उपज प्राप्त करने हेतु रासायनिक उर्वरकों (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम) और सिंथेटिक कीटनाशकों का उपयोग बढ़ गया है।
- पर्यावरणीय प्रभाव: ये रसायन बारिश के पानी के साथ बहकर नदियों और भूजल को प्रदूषित करते हैं, जिससे जल गुणवत्ता खराब होती है और जलीय जीवन को नुकसान पहुँचता है। मिट्टी की उर्वरता पर भी दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे मिट्टी में सूक्ष्मजीवों की विविधता कम होती है।
वनोन्मूलन और कृषि भूमि का विस्तार:
- निहितार्थ: बढ़ती आबादी और कृषि उत्पादन बढ़ाने की मांग के कारण वन भूमि को कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित किया जा रहा है।
- पर्यावरणीय प्रभाव: वनों की कटाई मिट्टी के कटाव को बढ़ाती है, जैव विविधता का नुकसान करती है, और कार्बन सिंक (carbon sink) की क्षमता को कम करती है। यह भूस्खलन के जोखिम को भी बढ़ाता है, खासकर खड़ी ढलानों पर।
सिंचाई पैटर्न में बदलाव और जल स्रोतों पर दबाव:
- निहितार्थ: पारंपरिक रूप से वर्षा-आधारित कृषि के बजाय, नकदी फसलों के लिए अधिक पानी की आवश्यकता होती है, जिससे सिंचाई के लिए प्राकृतिक झरनों, नदियों और भूजल पर दबाव बढ़ रहा है।
- पर्यावरणीय प्रभाव: जल स्रोतों का अत्यधिक दोहन झरनों के सूखने, भूजल स्तर में गिरावट, और नदी के पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान का कारण बन सकता है। जल की कमी स्थानीय समुदायों के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन जाती है।
एकल फसल (Monoculture) और जैव विविधता का नुकसान:
- निहितार्थ: पारंपरिक मिश्रित फसल प्रणालियों के बजाय, किसान अब बाजार की मांग के अनुसार एक ही प्रकार की फसल (जैसे सेब के बागान) पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।
- पर्यावरणीय प्रभाव: एकल फसलें मिट्टी की उर्वरता को कम करती हैं और उन्हें कीटों और बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती हैं, जिससे रासायनों का उपयोग और बढ़ जाता है। यह स्थानीय फसल किस्मों और कृषि-जैव विविधता के नुकसान का कारण भी बनता है।
मिट्टी के स्वास्थ्य पर प्रभाव:
- निहितार्थ: गहन जुताई, रासायनिक उर्वरकों का उपयोग और कार्बनिक पदार्थों की कमी से मिट्टी की संरचना और स्वास्थ्य बिगड़ रहा है।
- पर्यावरणीय प्रभाव: मिट्टी की उर्वरता कम होती है, जिससे उसकी जल धारण क्षमता घट जाती है और कटाव का खतरा बढ़ जाता है। यह मिट्टी के सूक्ष्मजीवों और केंचुओं जैसे महत्वपूर्ण जीवों को भी प्रभावित करता है।
जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि:
- निहितार्थ: पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ स्थानीय जलवायु के अनुकूल थीं। बदलती पद्धतियाँ, विशेषकर एकल फसलें, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों (जैसे अनियमित वर्षा, सूखे, चरम तापमान) के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं।
- पर्यावरणीय प्रभाव: फसल की विफलता का खतरा बढ़ जाता है, जिससे खाद्य सुरक्षा प्रभावित होती है और किसानों को आर्थिक नुकसान होता है।
मानव-वन्यजीव संघर्ष में वृद्धि:
- निहितार्थ: कृषि भूमि के विस्तार और वनों की कटाई से वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास सिकुड़ रहे हैं, जिससे वे भोजन की तलाश में कृषि क्षेत्रों में प्रवेश करते हैं।
- पर्यावरणीय प्रभाव: जंगली सूअर, बंदर, भालू और तेंदुए जैसी प्रजातियाँ फसलों को नुकसान पहुँचाती हैं, जिससे किसानों और वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ता है। यह वन्यजीवों के संरक्षण के प्रयासों को जटिल बनाता है।
पारंपरिक ज्ञान का क्षरण:
- निहितार्थ: आधुनिक कृषि पद्धतियों को अपनाने से पारंपरिक कृषि ज्ञान और प्रथाओं का क्षरण हो रहा है, जो सदियों से स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के साथ सामंजस्य स्थापित करने में मदद करते थे।
- पर्यावरणीय प्रभाव: यह ज्ञान का नुकसान समुदायों को स्थानीय पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना करने की उनकी क्षमता को कमजोर करता है।
सतत कृषि की आवश्यकता और अवसर:
- निहितार्थ: इन नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए, हिमालय में सतत कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना आवश्यक है, जिसमें जैविक खेती, एकीकृत कीट प्रबंधन, कृषि वानिकी, वर्षा जल संचयन, और स्थानीय फसल किस्मों का संरक्षण शामिल है।
- अवसर: यह न केवल पर्यावरण को लाभ पहुँचाएगा, बल्कि किसानों के लिए उच्च मूल्य वाले जैविक उत्पादों के माध्यम से नई बाजार संभावनाएँ भी खोलेगा, जिससे उनकी आजीविका में सुधार होगा और क्षेत्र का लचीलापन बढ़ेगा।
निष्कर्ष:
हिमालय में बदलती कृषि पद्धतियाँ इस नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र के लिए गंभीर पर्यावरणीय निहितार्थ लेकर आई हैं। रासायनिक उपयोग, वनोन्मूलन और एकल फसल पर बढ़ती निर्भरता से मिट्टी और जल प्रदूषण, जैव विविधता का नुकसान, और प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ रही है। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए, एक समग्र और सतत दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य है, जो पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक, पर्यावरण-अनुकूल कृषि तकनीकों के साथ एकीकृत करे। सतत कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देकर, हम न केवल हिमालय के पर्यावरण को संरक्षित कर सकते हैं, बल्कि स्थानीय समुदायों की आजीविका को भी सुरक्षित कर सकते हैं और इस क्षेत्र के लिए एक अधिक लचीला और समृद्ध भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं।