प्रस्तावना:
ब्रिटिश भूमि राजस्व नीतियों का उत्तराखंड की कृषि समाज पर गहरा और मिश्रित प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों ने पारंपरिक राजस्व प्रणाली को एक कठोर और केंद्रीकृत व्यवस्था से बदल दिया, जिससे जहाँ एक ओर कुछ प्रशासनिक दक्षता आई, वहीं दूसरी ओर स्थानीय किसानों और पारंपरिक भू-स्वामियों पर गंभीर आर्थिक बोझ पड़ा। इस नई व्यवस्था ने पारंपरिक सामाजिक संरचनाओं को भी बदल दिया, जिससे किसानों की स्थिति कमजोर हुई और ग्रामीण समाज में असमानता बढ़ी।
स्थायी बंदोबस्त और रैयतवाड़ी प्रणाली का प्रभाव: ब्रिटिश प्रशासन ने उत्तराखंड में भूमि राजस्व के लिए कई पद्धतियाँ अपनाईं। कुमाऊँ और गढ़वाल के कुछ हिस्सों में उन्होंने स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) लागू किया, जिससे राजस्व की राशि हमेशा के लिए तय हो गई। हालाँकि, यह प्रणाली अधिकांशतः मैदानी इलाकों में सफल नहीं हुई, क्योंकि इसने किसानों को जमींदारों के रहमोकरम पर छोड़ दिया। इसके बजाय, रैयतवाड़ी प्रणाली (Ryotwari System) अधिक प्रभावी थी, जहाँ राजस्व सीधे किसानों से वसूल किया जाता था। इस प्रणाली से बिचौलियों की भूमिका कम हुई, लेकिन राजस्व की दरें बहुत ऊँची थीं, जिससे किसानों पर भारी दबाव पड़ा।
पारंपरिक भूमि अधिकारों का ह्रास: ब्रिटिश नीतियों ने पारंपरिक भूमि अधिकारों की जगह एक औपचारिक स्वामित्व प्रणाली स्थापित की। गाँव के मुखियाओं और पारंपरिक जमींदारों की शक्ति कम हो गई, और भूमि स्वामित्व का दस्तावेजीकरण शुरू हुआ। इससे उन किसानों को नुकसान हुआ जिनके पास लिखित प्रमाण नहीं थे। कई छोटे किसान अपनी भूमि का स्वामित्व खो बैठे क्योंकि वे अत्यधिक राजस्व का भुगतान नहीं कर पा रहे थे।
ग्रामीण ऋणग्रस्तता में वृद्धि: राजस्व की ऊँची और निश्चित माँग के कारण किसानों को अक्सर फसल खराब होने या प्राकृतिक आपदाओं के समय भी भुगतान करना पड़ता था। इस कारण, उन्हें साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता था। जब वे कर्ज नहीं चुका पाते थे, तो उनकी जमीन साहूकार ले लेते थे। इस प्रक्रिया से ग्रामीण क्षेत्रों में ऋणग्रस्तता और भूमिहीनता में तेजी से वृद्धि हुई।
व्यावसायीकरण और नगदी फसलें: अंग्रेजों ने किसानों को नगदी फसलें (जैसे चाय, आलू और फल) उगाने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि वे राजस्व का भुगतान कर सकें। यह नीति जहाँ एक ओर कुछ किसानों के लिए लाभकारी थी, वहीं इससे पारंपरिक खाद्यान्न फसलों की खेती में कमी आई, जिससे ग्रामीण खाद्य सुरक्षा प्रभावित हुई। बागानों के विकास ने भी किसानों की भूमि का उपयोग बदल दिया और उन्हें बाजार की अस्थिरता के प्रति संवेदनशील बना दिया।
निष्कर्ष:
निष्कर्ष के तौर पर, ब्रिटिश भूमि राजस्व नीतियों का उत्तराखंड के कृषि समाज पर जटिल प्रभाव पड़ा। इन नीतियों ने जहाँ एक ओर राजस्व संग्रह को व्यवस्थित किया, वहीं दूसरी ओर इसने किसानों को कमजोर किया, ग्रामीण ऋणग्रस्तता को बढ़ाया और पारंपरिक सामाजिक संरचनाओं को हिला दिया। इन नीतियों के परिणामस्वरूप, भूमिहीनता और असमानता में वृद्धि हुई, जिसका दीर्घकालिक प्रभाव इस क्षेत्र के सामाजिक और आर्थिक विकास पर पड़ा।