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गढ़वाल के ऐतिहासिक किले

परिचय

गढ़वाल, उत्तराखंड का एक प्रमुख क्षेत्र है, जिसे न केवल उसकी अद्भुत प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, बल्कि इसकी समृद्ध ऐतिहासिकता और सांस्कृतिक धरोहर के लिए भी जाना जाता है। गढ़वाल क्षेत्र में 52 छोटे-छोटे किलों का निर्माण किया गया था, जो न केवल सुरक्षा के लिए बने थे, बल्कि स्थानीय समुदायों के सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन का भी हिस्सा थे।

अजमीर गढ़ (गंगसलाण)

यह किला मुख्यतः चौहानों और पयालों का किला था। इसकी इतिहास में स्थानीय संघर्षों की गाथाएँ छिपी हैं। इस किले को हुसैन खां टुकड़िया ने लूटा था।

इडिया गढ़ या ईडागढ़ (रवाई, बड़कोट)

इस किले के बारे में दो मत हैं, पहला यह कि ईडागढ़ कर्णप्रयाग-नौटी मोटर मार्ग (आदिबद्री के पास) पर माजियाड़ा गांव के पास पहाड़ी पर था जहां प्राचीन ईडा-बधानी गांव स्थित था। दूसरा मत यह है कि रवाई के इस किले का निर्माण रूपचंद नामक ठाकुर ने करवाया था।

इरासु गढ़

यह किला श्रीनगर के ऊपर स्थित था और इसकी सामरिक स्थिति ने इसे महत्वपूर्ण बना दिया था।

उपगढ़ (उदयपुर)

उपगढ़ चौहान जाति से संबंधित था। कफ्फू चौहान इस किले के गढ़पति थे, जिसे राजा अजयपाल ने अपने अधीन कर लिया था। इसका ऐतिहासिक महत्व स्थानीय राजनीतिक संरचना को दर्शाता है।

कंडारा गढ़

यह कंडारी जाति का गढ़ था। यह किला तत्कालीन नागपुर परगना में था। यहाँ का अंतिम राजा नरवीर सिंह था, जिन्होंने पंवार राजा से हार का सामना किया।

खत्रीगढ़ (रवाई)

यह किला पब्बर नदी के दाहिने किनारे पर स्थित है और गोरखा आक्रमण से पहले स्थापित किया गया था।

कांडा या कांदा गढ़

यह रावत जाति का गढ़ था, जो गढ़वाल की सामरिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था।

कुंजणी गढ़

इसका अंतिम शासक सुल्तान सिंह था, जो स्थानीय विवादों और लड़ाइयों का गवाह बना। यह किला सत्तामूलक संघर्षों का एक प्रमाण है।

कुईली गढ़ (जौरासी गढ़)

कुइलीगढ़ (नरेंद्रनगर) कोटाग्राम के पास भागीरथी के दाहिने किनारे पर स्थित है। इसे जौरासी गढ़ के नाम से भी जाना जाता है। यह गढ़ सजवाण जाति का था यहां का अंतिम थोकदार सुल्तान सिंह था। किले में घंटाकर्ण का मंदिर भी है, जो स्थानीय समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थल रहा।

कौलपुरगढ़ (चांदपुर)

कौंपुरगढ़ या कोलपुरगढ़ कोब गांव से कुछ दूरी पर है, जहां प्राचीन अवशेष मिले हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजा कनकपाल का किला था।

कोल्ली गढ़

यह गढ़ बछवाण बिष्ट समुदाय से संबंधित था। कोल्ली गढ़ ने इस समुदाय को एक सुरक्षात्मक स्थान प्रदान किया और इसकी सामुदायिक पहचान को बनाए रखा।

गडकोटगढ़ (गंगा सालाण)

गडकोट या घरकोट नाम से प्रसिद्ध यह बगडवाल बिष्टों का किला था। यह किला स्थानीय प्रशासन और सामुदायिक पहचान का प्रतीक है।

गरतांग गढ़

यह भोटिया जाति का गढ़ था। इसकी संरचना और डिज़ाइन भोटिया क्षेत्र की स्थापत्य कला को दर्शाते हैं।

गुजरु गढ़ या गूजदारगढ़

यह गढ़ सालाण परगना (मल्ला सालाण) में था और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। किले के खंडहर (अवशेष) अभी भी मौजूद हैं। सिली गांव से किले तक सीढ़ीनुमा सुरंग और करीब छह घेरों में गहरी खाइयां बनी हुई थी। 

चम्पा गढ़

यह गढ़ देवाल परगना में स्थित था और स्थानीय प्रशासनिक गतिविधियों का केंद्र रहा।

चांदपुर गढ़ (चाँदकोट)

पौड़ी जिले का एक प्रसिद्ध किला, यह किला तैली चांदपुर में था। यह खश गढ़पति सूर्यवंशी राजा भानुप्रताप का गढ़ था, उसके बाद पँवार वंश के संस्थापक कनकपाल की राजधानी रही। इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ने इसे महत्वपूर्ण बना दिया।

चौंडा गढ़ (चाँदपुर)

चौंदकोट गढ़ पौड़ी जिले के प्रसिद्ध किलों में से एक है। चौडाल जाति का यह गढ़ शीली चांदपुर में स्थित था। यह स्थानीय समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक केंद्र था। यहां प्राचीरों और खाइयों सहित किलों के अवशेष मौजूद हैं। इसके अवशेष आज भी चौबट्टाखाल के ऊपर पहाड़ी पर देखे जा सकते हैं।

जौनपुर गढ़

यह किला यमुना के बाएं तट पर स्थित है, किले के पास ही अगलार-यमुना का संगम है। इसकी भौगोलिक स्थिति ने इसे प्रमुखता दी। यह गढ़ अपने प्राकृतिक संसाधनों के लिए जाना जाता था।

डोडराक्वारा गढ़

यह गढ़ राणा जाति का था और स्थानीय शक्ति संतुलनों को दर्शाता है।

तोप गढ़ (चाँदपुर)

यह तोपला जाति का गढ़ था। इस वंश के वीर गढ़पति तुलसी सिंह ने तोप चलवाई थी, इसलिए इसे तोपगढ़ कहा जाने लगा। तोपला जाति का नाम भी इसी कारण पड़ा।

दशोली गढ़  (दशौली) 

दशोली गढ़ को राजा मानवर द्वारा बनाया गया था। यह गढ़ स्थानीय संस्कृति और राजनीतिक गतिविधियों का एक अभिन्न हिस्सा था।

देवलगढ़ (देवलगढ़)

इस किले का पूरा नाम विटवाल के नाम पर जगत गढ़ था। 12वीं शताब्दी में कांगड़ा राजा देवल के नाम पर इस किले का नाम देवलगढ़ रखा गया। देवलगढ़ परगने में स्थित, यह किला सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था। राजा अजयपाल ने इस किले को अपने अधीन कर लिया था।

धौन गढ़

यह धौन्याल जाति का क्षेत्र था और इसका किला कुंजणी ब्रह्मपुरी से ऊपर है। इसे स्थानीय संस्कृति का संवाहक माना जा सकता है।

नयाल गढ़

कटुलस्यूं में स्थित, नयाल गढ़ का अंतिम शासक भग्गू था। यह गढ़ स्थानीय शासन को दर्शाता है।

नागपुर गढ़ (नागपुर) 

नागपुर गढ़, जो जौनपुर परगने में स्थित है, नागनाथ के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह किला अपने अंतिम शासक राजा भजन सिंह के लिए जाना जाता है। इसकी धार्मिक महत्ता के साथ-साथ इस गढ़ का सामरिक महत्व भी रहा है।

नाला गढ़ (नालागढ़ी)

यह गढ़ देहरादून जिले में स्थित था और इसे नालापानी के नाम से भी जाना जाता था, जिसे बाद में नालागढ़ी के नाम से जाना जाने लगा। इसकी सामरिक और व्यावसायिक योजनाएँ इसे महत्वपूर्ण बनाती हैं।

पावगढ़ या मावगढ़

पावगढ़ या मावगढ़ (गंगा सालाण) को गढ़वाल के सात गढ़ों में से एक कहा जाता है। यहां भंडा और भानदेव असवाल का शासन था।

फल्याण गढ़ (बारहस्यूं)

यह किला फल्दकोट में स्थित था और प्रारंभ में राजपूतों का था, जिसे बाद में शमशेर सिंह ने ब्राह्मणों को दान दिया। इसका यह परिवर्तन जातीय व सामुदायिक संघर्षों और सहयोगों का प्रतीक है।

बंधान गढ़ (बधाण) 

यह गढ़ पिंडर नदी के ऊपरी क्षेत्र में स्थित था, जहाँ बधाणी ठाकुरों का निवास था। यह गढ़ स्थानीय निवासियों के जीवन के लिए महत्वपूर्ण रहा है।

बाग गढ़

बगड़ीगढ़ (गंगा सालान) या बगुड़ी यह बागूनी नेगी जाति का गढ़ था, जो गंगा सालान में स्थित है। यह क्षेत्र की रणनीतिक स्थिति को दर्शाता है।

बनगढ़

बनगढ़ अलकनंदा के दाहिनी ओर स्थित था। यह किला सोनपाल के अधीन था। यहां राजराजेश्वरी का प्राचीन मंदिर है।

बरहगढ़ (भरदार)

बरहगढ़ (भरदार) लस्टूर और डिमर की ऊपरी घाटी में मंदाकिनी के दाहिनी ओर स्थित है।

बादलपुर गढ़

बादलपुर गढ़ (तल्ला सालाण) पौड़ी जिले में स्थित चिनबाऊ के ऊपर गढ़धर पर्वत जहां किले के अवशेष स्थित हैं। बादलपुर गढ़ ने स्थानीय राजनीतिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण स्थान बनाया।

बिराल्टा गढ़

बिराल्टा गढ़ जौनपुर में स्थित, रावत जाति के इस किले के अंतिम थोकदार भूप सिंह थे। यह स्थानीय राजनीतिक संघर्षों का एक आइना है।

भरदार गढ़

वनगढ़ के निकट स्थित यह गढ़ अलकनंदा के किनारे था। यह किला तीन ओर से चट्टानों से घिरा है, उत्तर दिशा से प्रवेश कठिन है। जिससे इसकी सुरक्षा और सामरिक महत्व का पता चलता है।

भरपुर गढ़ (नरेंद्रनगर)

भरपुरगढ़ (नरेंद्रनगर) गंगा के दाहिनी ओर स्थित है। यह किला भी सजवाण जाति का गढ़ था और इसके अंतिम थोकदार (मुखिया) गोविंद सिंह थे। यह गढ़ दर्शाता है कि कैसे स्थानीय शासक अपनी जगह का प्रशासन करते थे।

भिलगगढ़ (भिलंग)

यह खाल गांव में गवाणागाड़ और भिलंगना के संगम पर स्थित है। यहाँ पंवार वंश के 24वें राजा सोनपाल ने शासन किया।

मुंगरा गढ़ (रवाई)

यह गढ़ रावत जाति का था। इस किले में अब रौंतेला ठाकुरों के घर हैं। इस किले की तीनों दिशाओं में यमुना बहती है और दक्षिण से इस किले तक पहुँचने के लिए चट्टान को काटकर सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। खाई में स्थित होने के कारण एक सुरक्षित स्थान बना। इसकी सामरिक स्थिति ने इसे महत्वपूर्ण बनाया।

मोल्या गढ़

रमोली में स्थित मोल्या गढ़, को भी रमोला जाति से जोड़ा जाता है। यह गढ़वाल के इतिहास में रमोला समुदाय की भूमिका को उजागर करता है।

रतन गढ़

यहाँ धमदा जाति का निवास था और यह गढ़ क्षेत्र की सांस्कृतिक विविधता को दर्शाता है।

राइका गढ़

राइका टिहरी गढ़वाल जिले के प्रतापनगर ब्लॉक में एक गाँव है। यहाँ स्थित किला रमोला जाति का गढ़ था और इसके इतिहास में क्षेत्र की सांस्कृतिक विविधता का प्रतिबिंब मिलता है।

रानी गढ़ (चाँदपुर)

खस जाति का यह किला रानीगढ़ (चांदपुर) क्षेत्र में था। यह खाती ठकुरी गढ़ था। इस किले की स्थापना एक रानी ने की थी, इसलिए इसे रानी गढ़ कहा जाने लगा। यह किला स्थानीय सामाजिक संरचनाओं में महिला नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाता है। यह महिलाओं की शक्ति का प्रतीक है।

रामी गढ़

रामी गढ़ रावत जाति से संबंधित था और शिमला से जुड़ा हुआ था। इसकी भौगोलिक स्थिति ने इसकी सामरिक शक्ति को बढ़ाया।

रावण गढ़

बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित, यह गढ़ रावणी जाति का था। इसकी भौगोलिक स्थिति ने इसे एक महत्वपूर्ण रक्षा स्थान प्रदान किया, जो तीर्थयात्रियों की सुरक्षा का भी ध्यान रखता था।

वागर गढ़

नागवंशी राणाओं का यह गढ़ खसिया जाति के लिए महत्वपूर्ण था। इसका इतिहास सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों से भरा हुआ है।

श्रीगुरु गढ़

यह सालण में स्थित पाड़ियारी जाति का किला था, जिसका अंतिम शासक विनोद सिंह था। पडियार जाति को अब परिहार कहते हैं जो राजस्थान की एक प्रमुख जाति है। इससे पता चलता है कि राजसी परिवारों की पहचान और सत्ता का कैसे संचय होता था।

सांकरी गढ़

यह किला रवाईं क्षेत्र का एक गढ़ था और राणा जाति का प्रमुख किला था। इसके आस-पास के क्षेत्र की सुरक्षा के लिए इसे बनवाया गया था।

सिल गढ़

सिलगढ़ (भरदार, सिलगढ़) कोटग्राम के पास मंदाकिनी नदी के दाहिनी ओर स्थित है। सिल गढ़ किला भी सजवाण जाति का किला था और इसका अंतिम राजा सावल सिंह था। यह किला स्थानीय राजनीति और शक्ति के संघर्ष का प्रतीक है।

लंगूर गढ़ (गंगा सलाण) 

इस गढ़ में भैरव का मंदिर होने के कारण इस गढ़ को भैंरव गढ़ भी कहा जाता है। इस गढ़ पर असवाल ठाकुरों का राज रहा। यह किला भी गढ़वाल की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है।

लोदगढ़

यह किला देवलगढ़ परगना में था। यह टोडी जाति का किला था और विभिन्न जातियों के सामुदायिक इतिहास का हिस्सा था।

वनगढ़ गढ़

यह किला अलकनंदा नदी के दक्षिण में स्थित था। यह किला स्थानीय व्यापार के मार्ग पर खड़ा था, जो इसकी सामरिक मूल्य को बढ़ाता है।

संगेला गढ़

यह किला नैलचामी में था। यहाँ बिष्ट जाति के लोग रहते थे। यह किला उनके जल संसाधन प्रबंधन के ज्ञान का प्रमाण था।

निष्कर्ष

गढ़वाल, उत्तराखंड का एक ऐतिहासिक क्षेत्र है, जिसमें 52 किलों का निर्माण विभिन्न सामरिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए किया गया था। ये किले स्थानीय समुदायों की सुरक्षा और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक रहे हैं, जैसे अजमीर गढ़, इडिया गढ़, और इरासु गढ़। प्रत्येक किला अपने विशिष्ट इतिहास और शासकों के लिए महत्वपूर्ण है, जैसे कंडारा गढ़, जिसका अंतिम राजा नरवीर सिंह था, और रानी गढ़, जिसे एक रानी ने स्थापित किया था। इन किलों की सामरिक स्थिति, प्रशासनिक महत्व, और धार्मिक स्थल के रूप में उपस्थिति ने गढ़वाल की ऐतिहासिक धरोहर को स्थापित किया है, जो आज भी क्षेत्र की सांस्कृतिक विविधता को दर्शाता है।

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