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उत्तराखंड के प्रमुख लोक पर्व

परिचय

उत्तराखंड, जिसे “देवभूमि” के नाम से भी जाना जाता है, अपनी प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए भी प्रसिद्ध है। यहाँ के लोक पर्व न केवल विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरों का पालन करते हैं, बल्कि स्थानीय समुदायों की एकता, प्रेम और भाईचारे को भी बढ़ाते हैं।

घुघुतिया या उत्तरायणी

पर्व का महत्व और इतिहास: उत्तराखंड में मकर संक्रांति को घुघुतिया के नाम से मनाया जाता है। इसे विशेष रूप से कुमाऊं मंडल में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह पर्व हर साल 14-15 जनवरी के बीच आता है। घुघुत एक विशेष पकवान है, जिसे इस दिन बनाया जाता है। यहाँ के लोग इस दिन को एक महत्वपूर्ण अवसर मानते हैं, क्योंकि यह नए फसलों की शुरुआत का प्रतीक है।

सांस्कृतिक उद्देश्य: इस पर्व का पारंपरिक उद्देश्य है एकदूसरे को मिलाना और आपसी सौहार्द बढ़ाना। लोग अपने रिश्तेदारों और पड़ोसियों को घुघुत के पकवान भेंट करते हैं। साथ ही, इस दिन विशेष मेलों का आयोजन होता है। बागेश्वर में उतरायनी मेला और उत्तरकाशी में माघ मेला इसी समय शुरू होते हैं, जहाँ लोग अपनी पारंपरिक पहनावा में सजकर भाग लेते हैं।

मरोज त्योहार

पर्व का विशेष संदर्भ : मरोज त्योहार उत्तराखंड के मसूरी के पास जौनपुर, जौनसार और रवाई घाटी में मनाया जाता है। यह पर्व माघ महीने में आता है। इस अवसर पर हर घर में विभिन्न प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं।

सामुदायिक उत्सव : यह त्योहार स्थानीय समुदाय की एकता का प्रतीक है। खासकर, जो लोग शहरों में रहते हैं, वे इस दिन अपने घर लौटकर परिवार के साथ इस पर्व को मनाते हैं। स्थानीय वाद्य यंत्रों की धुन पर उत्सव मनाना इस पर्व का मुख्य आकर्षण है।

सिर पंचमी अर्थात बसंत पंचमी

महत्व और विशेषताएँ : बसंत पंचमी उत्तराखंड में एक प्रमुख पर्व है, जो इस बात को दर्शाता है कि प्रकृति प्रेम और आपसी सद्भाव कितना महत्वपूर्ण है। इसे विशेष रूप से ज्ञान और विद्या की देवी, सरस्वती की पूजा के लिए मनाया जाता है। इस दिन उत्तराखंड के लोग स्नान कर दान करने पर जोर देते हैं।

पारंपरिक क्रिया-कलाप : इस दिन को जौ त्यार भी कहा जाता है। इस दिन घर की सफाई की जाती है, और सरसों के पीले फूलों को दरवाजों पर डाला जाता है। घर में विशेष व्यंजनों का निर्माण होता है, जैसे घुघते, पूरी और खीर। नन्हें बच्चों को पीले कपड़ों में सजाया जाता है, और कान-नाक छेदन जैसे धार्मिक कार्य भी किए जाते हैं।

फूलदेई

लोक बाल पर्व : फूलदेई त्योहार उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक पर्वों में से एक है, जिसे हर साल चैत मास की पहली तिथि को मनाया जाता है। यह पर्व विशेष रूप से बच्चों द्वारा मनाया जाता है, जिससे इसे लोक बाल पर्व भी कहा जाता है।

उत्सव का स्वरूप: इस दिन बच्चे घर की दहलीज पर फूल बिछाते हैं और खुशियाँ बाँटते हैं। लोग एक-दूसरे को मिठाई बांटते हैं और प्रणाम करते हैं, जिससे समाज में प्यार और एकता का संदेश फैलता है।

कुमाऊनी होली

सांस्कृतिक विविधता : उत्तराखंड में होली का पर्व बेहद धूमधाम से मनाया जाता है। विशेषकर कुमाऊं क्षेत्र में, होली का उत्सव मार्च में शुरू होता है। यहाँ की होली में बैठकी और खड़ी होली के रूप होती हैं।

होली के गीत: बैठकी होली में शास्त्रीय होलियों का गायन किया जाता है, जो समय के साथ-साथ अपनी पहचान बनाए रखती है। होली के दिनों में संपूर्ण उत्तराखंड में होली गीतों का अलाप सुनाई देता है, जिससे लोक संस्कृति की समृद्धि झलकती है।

विषुवत संक्रांति या बुढ़ त्यार

वैदिक मान्यता : विषुवत संक्रांति को भारतीय वैदिक मान्यता में विशेष स्थान प्राप्त है। इसे हर साल बैसाख महीने में मनाया जाता है। इस दिन भगवान सूर्यदेव मेष राशि में जाते हैं, और इसका महत्व स्वास्थ्य और समृद्धि से जुड़ा हुआ है।

धार्मिक अनुष्ठान : इस दिन गंगा स्नान का महत्व बताया गया है, क्योंकि इसके द्वारा कई बुराइयों से छुटकारा पाया जा सकता है। लोग इस दिन दान और स्नान करते हैं, जिससे उनकी जीवन में सुख और समृद्धि आती है।

घ्वीड़ संक्रांति

प्राकृतिक समर्पण : घ्वीड़ संक्रांति का पर्व जून में आता है। इस दिन गढ़वाल क्षेत्र में नए अनाज के घ्वीड़ बनाए जाते हैं। यह पर्व प्रकृति के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने का एक माध्यम है।

सामुदायिक समारोह : इस दिन लोग एकत्र होकर अपने पितरों और कुल देवताओं को चढ़ाने के लिए घवीड बनाते हैं, और बच्चों को खेलने एवं खाने देते हैं। यह पर्व एक सामूहिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है, जिसमें सभी एकीकृत होकर प्राकृतिक संतुलन की अहमियत को समझते हैं।

हरेला पर्व

प्रकृति के प्रति आभार का पर्व : हरेला पर्व उत्तराखंड का सबसे बड़ा लोक पर्व है, जो विशेषकर कुमाऊं क्षेत्र में मनाया जाता है। यह पर्व सावन माह की कर्क संक्रांति के दिन आता है और इसे पेड़ लगाने के महत्व से जोड़ा जाता है।

सामूहिक सहभागिता : हरेला के दिन लोग मिलकर वृक्षारोपण करते हैं और प्रकृति की रक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं। यह पर्व सामुदायिक भागीदारी का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है, जो हर किसी को प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है।

घी संक्रांति

ओलगिया त्यार : घी संक्रांति, जिसे ओलगिया त्यार भी कहा जाता है, भाद्रपद माह में मनाया जाता है। इस दिन लोग विशेष ध्यान देते हैं कि वे घी का सेवन अवश्य होता है।

परंपराएँ : इस दिन लोग एक-दूसरे को घी, दूध, दही और फलों का उपहार देते हैं। यह एक परंपरागत प्रथा है, जिसे उत्तराखंड में ओग देने की परंपरा है। ये सभी गतिविधियाँ समाज में एकता और सद्भाव का परिचायक होती हैं।

खतड़ुवा त्यार

सर्दियों का स्वागत : खतड़ुवा या कन्या संक्रांति का पर्व आश्विन माह की संक्रांति पर मनाया जाता है। यह पर्व शीत ऋतु के आगमन का प्रतीक है और इसे विशेष धूमधाम से मनाया जाता है।

ऐतिहासिक संदर्भ : इस पर्व को अपने सेनापति की विजय का प्रतीक माना जाता है। व्यावहारिक रूप से, इस दिन लोग ऊँची चोटियों पर आग जलाकर सन्देश भेजते थे, जो सामीप्य की महत्ता को दर्शाता है।

ईगास बग्वाल

विजय का उत्सव : ईगास बग्वाल दीपावली के 11 दिन बाद,  एकादशी के दिन मनाया जाने वाला पर्व है। इसे वीरता के प्रतीक के रूप में मनाते हैं, खासतौर पर वीर माधो सिंह भंडारी की विजय के उपलक्ष्य में।

सांस्कृतिक प्रदर्शन : इस दिन लोग महल में ईगास का उत्सव मनाते हैं, जहाँ पत्थर युद्ध की बाहुलता देखी जाती है। यह पर्व सामूहिक खुशी का अनुभव देने के लिए मनाया जाता है।

मंगसीर बग्वाल

“बूढ़ी दीवाली” : मार्गशीर्ष की अमावस्या को मनाया जाने वाला मंगसीर बग्वाल उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में “बूढ़ी दीवाली” के नाम से जाना जाता है। यह पर्व दीपावली के एक माह बाद आता है।

परंपरा और मान्यता : इस पर्व में, लोग अपने घरों को सजाते हैं और एक-दूसरे को मिठाइयाँ बांटते हैं। यह पर्व भी सामुदायिक एकता और प्रेम का प्रतीक है।

निष्कर्ष

उत्तराखंड के ये लोक पर्व सिर्फ त्यौहार नहीं हैं, बल्कि ये हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा हैं। ये पर्व न केवल प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करते हैं, बल्कि समुदायों के बीच एकता और भाईचारे को भी बढ़ाते हैं। उत्तराखंड की लोक पर्वों की ये विशेषताएँ हमें सिखाती हैं कि हमारा जीवन जितना प्राकृतिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होगा, उतना ही हम खुशहाल और संतुष्ट रहेंगे।

आज के दौर में, जब हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, हमें इन लोक पर्वों और परंपराओं को संजोकर रखना चाहिए। ये पर्व हमारी पहचान हैं और हमें उनकी महत्ता को समझते हुए उनका उल्लास मनाना चाहिए।

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