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उत्तराखंड की मृदा: एक विस्तृत विवरण

परिचय

उत्तराखंड, एक पर्वतीय राज्य है, जो अपनी भौगोलिक विविधता और प्राकृतिक सौंदर्य के कारण प्रसिद्ध है। यहाँ की मिट्टी या मृदा कृषि, वानिकी और पारिस्थितिकी को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। राज्य की मृदा की विशेषताएँ उसकी जलवायु, स्थलाकृति और अन्य पर्यावरणीय फैक्टरों के कारण भिन्न हैं। यहाँ हम उत्तराखंड की मृदा के विभिन्न प्रकारों का विस्तृत वर्णन करेंगे।

तराई मृदा

तराई मृदा उत्तराखंड के सबसे दक्षिणी भाग में, विशेषकर देहरादून से ऊधम सिंह नगर तक फैली हुई है। यह मिट्टी महीन कणों के निक्षेप से बनी होती है और इसकी परिपक्वता राज्यों की अन्य मिट्टियों की तुलना में अधिक होती है। तराई मृदा में नाइट्रोजन और फास्फोरस की कमी पाई जाती है।

कृषि उपयोग : यह मृदा समतल, दलदली, नम और उपजाऊ होती है, जिससे यहाँ गन्ने और धान की पैदावार बेहतर होती है। इसके अलावा, इसमें सब्जियों और फल-फूलों की भी खेती की जाती है।

भाबर मृदा

यह मृदा तराई मृदा के उत्तर और शिवालिक पहाड़ियों के दक्षिण में पाई जाती है। भाबर की मिट्टी कंकड़, पत्थरों और बालू के मिश्रण से बनी होती है। यह छिछली होती है और इसकी जलधारण क्षमता कम होती है।

कृषि उपयोग : कृषि के लिए यह मृदा अनुपयुक्त मानी जाती है, क्योंकि इसमें जल को धारण करने की क्षमता कम होती है। यहाँ की मिट्टी में जैविक पदार्थों की कमी के कारण फसलें सही से नहीं उगती हैं।

चारागाही मृदाएं

चारागाही मृदाएं निचले भागों में जलधाराओं के निकट और नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में पाई जाती हैं। इन्हें कई भागों में विभाजित किया गया है, जैसे:

मटियार दोमट मृदा – यह मिट्टी भूरे रंग की होती है और इसमें नाइट्रोजन तथा जैविक पदार्थ की मात्रा अधिक होती है।

अत्यधिक चूनेदार दोमट – उच्च चूने की मात्रा का धारण करने वाली मिट्टी।

कम चूनेदार दोमट – इसमें चूने की मात्रा कम होती है।

गैर चूनेदार दोमट – चूना नहीं होने से यह खास होती है।

बलुई दोमट – इसमें रेत की अधिकता होती है और यह नरम होती है।

कृषि उपयोग : इस प्रकार की मृदाएं घास के लिए विशेष रूप से उपयुक्त होती हैं, और स्थानीय पशुपालन के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।

टर्शियरी मृदा

टर्शियरी मृदा शिवालिक पहाड़ियों और दून घाटी में पाई जाती है। यह हल्की, बलुई एवं छिद्रमय होती है, जिसका अर्थ है कि इसमें जल धारण करने की क्षमता कम होती है। इस मिट्टी में वनस्पति एवं जैविक पदाथ की मात्रा कम होती है।

कृषि उपयोग : हालाँकि इस प्रकार की मृदा में जैविक सामग्री कम हो सकती है, लेकिन दून घाटी में इसमें कुछ अधिकता देखने को मिलती है, जो कि फसलों के विकास के लिए अनुकूल होती है।

क्वार्टज मिट्टी

क्वार्टज मिट्टी नैनीताल के भीमताल क्षेत्र में पाई जाती है। यह चट्टानों के विघटन से बनी हल्की मिट्टी है। इसके निर्माण के लिए शिष्ट, शेल, और क्वार्टज़ चट्टानों का योगदान है।

कृषि उपयोग: क्वार्टज मिट्टी सामान्यतः कृषि के लिए अनुपयुक्त मानी जाती है, क्योंकि इसकी उपज क्षमता कम होती है। इसमें जलधारण करने की क्षमता भी उचित नहीं होती है।

ज्वालामुखी मिट्टी

ज्वालामुखी मिट्टी नैनीताल जिले के भीमताल में पाई जाती है। ये आग्नेय चट्टानों के विघटन से बनी होती हैं और हल्की तथा बलुई होती हैं।

कृषि उपयोग : यह मिट्टी कृषि कार्यों के लिए उपयुक्त है और फल-सब्जियों की खेती के लिए अच्छी मानी जाती है।

दोमट मिट्टी

दोमट मिट्टी शिवालिक पहाड़ियों के निचले ढालों तथा दून घाटी में पाई जाती है। इसमें हल्का चिकनापन, चूना, लौह अंश और जैविक पदार्थ होते हैं।

कृषि उपयोग : यह मिट्टी कृषि के लिए बहुत उपयोगी है और इसमें फलफूल तथा गेहूँ की अच्छी पैदावार होती है।

भूरी लाल-पीली मिट्टी

यह मिट्टी नैनीताल, मसूरी और चकराता के निकट शेल और डोलोमाइट चट्टानों से निर्मित होती है। इसका रंग भूरा, लाल या पीला होता है।

कृषि उपयोग : यह मृदा बहुत उपजाऊ होती है और इसमें अधिक आद्रता धारण करने की क्षमता होती है। इसे बहुत सी फसलों के लिए उपयुक्त माना जाता है।

लाल मिट्टी

यह मिट्टी उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में अधिकतर पाई जाती है। इसमें लौह ऑक्साइड की अधिकता होती है, जिससे इसका रंग लाल होता है।

कृषि उपयोग : लाल मिट्टी उपजाऊ होती है, लेकिन इसकी जलधारण क्षमता कम होती है। इसे आमतौर पर आलू और अन्य फसलों की पैदावार के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

काली मिट्टी

काली मिट्टी विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाती है, विशेषतः देहरादून और हरिद्वार में। इसमें कार्बनिक पदार्थों की अधिकता होती है और यह काली रंग की होती है।

कृषि उपयोग : यह मिट्टी बहुत उपजाऊ है और इसमें जल धारण की क्षमता भी अधिक होती है। इसे कई अनाजों की खेती के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

रेतीली मिट्टी

रेतीली मिट्टी उत्तरकाशी और चमोली जिलों में पाई जाती है। यह मिट्टी मुख्य रूप से रेत से बनी होती है और इसमें कार्बनिक पदार्थों की मात्रा कम होती है।

कृषि उपयोग : यह मिट्टी कम उपजाऊ होती है और जल धारण क्षमता भी कम होती है, जिससे कृषि में इसकी उपयोगिता सीमित है।

मृदा की उर्वरता और जल धारण क्षमता सुधार

उत्तराखंड की मिट्टियों की उर्वरता और जल धारण क्षमता में सुधार के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं:

जैविक खेती

जैविक खेती में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग नहीं किया जाता है। यह मिट्टी की स्वास्थ्य और उर्वरता को बनाए रखने में मदद करता है। जैविक पदार्थों का समावेश करने से मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार होता है।

अंतरवर्ती खेती

एक ही खेत में विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती को अंतरवारती कृषि कहा जाता है। यह मिट्टी की संरचना को बेहतर बनाने में मदद करता है और कीट संरक्षण में सहायक होता है।

वनरोपण

वनरोपण मिट्टी के कटाव को रोकने और उसकी उर्वरता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण होते हैं। पेड़-पौधों का रोपण मिट्टी की संरचना को मजबूत बनाता है।

जल संरक्षण तकनीकें

जल संरक्षण तकनीकें, जैसे वर्षा जल संचयन, मिट्टी के कटाव को रोकती हैं और जल संरक्षण को बढ़ावा देती हैं।

निष्कर्ष

उत्तराखंड की मृदा विभिन्न प्रकारों में विविधता दर्शाती है, जो न केवल कृषि और वानिकी के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में भी सहायता करती है। उचित प्रबंधन और संरक्षण के उपायों को अपनाकर, इस राज्य की प्राकृतिक धरोहर को संरक्षित किया जा सकता है। उचित कृषि प्रथाओं और विज्ञान आधारित तकनीकों से मिट्टी की गुणवत्ता का सुधार किया जा सकता है। और उत्तराखंड की मृदा की सम्पूर्णता को बढ़ाया जा सकता है।

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