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वीरांगना जियारानी की वीरता और बलिदान

प्रस्तावना:

लोकगाथाओं के इतिहास में जियारानी का नाम एक अद्वितीय और प्रेरक उदाहरण है। उत्तराखंड की यह वीरांगना, जिन्होंने अपनी प्रजा की रक्षा हेतु विदेशी आक्रमणकारियों से युद्ध किया और बलिदान देकर स्वयं को अमर कर दिया, आज भी कुमाऊँ अंचल की सांस्कृतिक स्मृति और परंपरा का हिस्सा बनी हुई हैं। उनकी गाथा मात्र एक ऐतिहासिक घटना नहीं है, बल्कि समाज की सामूहिक श्रद्धा, आस्था और पहचान से जुड़ी हुई है।

लोकगाथा और इतिहास का संगम: यद्यपि उनके जीवन का लिखित इतिहास सीमित है, किंतु लोकगाथाओं और परंपराओं ने जियारानी को अमर बना दिया है। कुछ उन्हें खाती (राजपूत) वंश की कन्या मानते हैं, तो कुछ मालवदेश से जोड़ते हैं। किंतु लोक विश्वास में वे नारी सशक्तिकरण और अस्मिता की प्रतिमूर्ति हैं।

प्रजा के लिए अदम्य साहस: जियारानी ने तुर्क आक्रमणकारियों के आगे आत्मसमर्पण न करते हुए युद्धभूमि में खुलकर मुकाबला किया। उन्होंने यह दिखा दिया कि प्रजा और राज्य का सम्मान सबसे बड़ा होता है। अपने साहस से वे सामाजिक आदर्श बन गईं।

बलिदान और शहादत: तुर्कों के आक्रमण के समय रानी ने अपनी अंतिम सांस तक संघर्ष किया और वीरगति को प्राप्त हुईं। यह बलिदान उन्हें उत्तराखंड की पहली अद्भुत वीरांगना के रूप में स्थापित करता है। उनकी शहादत लोकमंगल और नारी:शक्ति का प्रतीक है।

कुलदेवी और जनदेवी का स्थान: उनकी मृत्यु के उपरांत स्थानीय समाज ने उन्हें केवल रानी के रूप में नहीं, बल्कि देवी के रूप में पूजना शुरू किया। आज भी कत्यूरी वंशज उन्हें अपनी कुलदेवी के रूप में मानते हैं और आम जन उन्हें न्याय व जनदेवी का स्वरूप मानते हैं।

लोक संस्कृति में स्मृति: जियारानी की स्मृति उत्तराखंड की लोक संस्कृति में जीवित है। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर चित्रशिला (रानीबाग) में मेला आयोजित होता है, जहाँ “जय जिया” के स्वर गूंजते हैं। यहाँ जागर का आयोजन होता है जिसमें दमुआ, मसकबीन और हुड़का जैसे वाद्य यंत्रों के साथ उनकी वीरता का गुणगान किया जाता है। यह जनश्रद्धा उन्हें पीढ़ी:दर:पीढ़ी अमर करती है।

सांस्कृतिक पहचान और प्रेरणा: उत्तराखंड के गाँवों में नवरात्र के अवसर पर भी “जागर” के माध्यम से जियारानी को पूजा जाता है। उनका चरित्र महिलाओं को साहस, सम्मान और आत्मसम्मान की प्रेरणा देता है। वे रानी लक्ष्मीबाई के समकक्ष मानी जाती हैं और क्षेत्रीय पहचान का गौरव बन चुकी हैं।

निष्कर्ष:

जियारानी केवल एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना की जीवित प्रतीक हैं। उनका त्याग उत्तराखंड की जनता की सामूहिक आस्था और श्रद्धा में बसा हुआ है। उनकी गाथा यह संदेश देती है कि वीरता और न्याय रक्षा के पथ पर चलना ही सच्ची संस्कृति और धर्म है। आज भी “जय जिया” के स्वर इस बात के प्रमाण हैं कि लोकनायक और लोकनायिकाएँ कभी इतिहास के अंधकार में लुप्त नहीं होतीं, बल्कि लोकमानस में अमर रहती हैं।

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