प्रस्तावना:
अंग्रेजों के भारत आगमन के बाद भूमि राजस्व उनकी आय का मुख्य स्रोत बन गया। कंपनी और ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न प्रकार की भूमि व्यवस्था लागू की, जिनका उद्देश्य किसानों की भलाई नहीं, बल्कि अधिक से अधिक राजस्व प्राप्त करना था। स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी और महालवाड़ी जैसे प्रयोगों ने भारतीय कृषि व्यवस्था को गहरे संकटों में डाल दिया। परिणामस्वरूप भारतीय कृषक समुदाय शोषण, गरीबी और ऋणग्रस्तता की चपेट में आ गया और कृषि विकास स्थिर होकर ठहराव की स्थिति में पहुँच गया।
प्रमुख ब्रिटिश भूमि प्रणालियाँ
- स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement, 1793) – बंगाल, बिहार और उड़ीसा में लागू इस व्यवस्था में जमींदारों को भूमि का स्थायी स्वामित्व दे दिया गया। इससे किसानों पर भारी लगान थोपा गया और शोषण बढ़ा।
- रैयतवाड़ी व्यवस्था (Ryotwari System) – मद्रास और बंबई प्रांतों में लागू इस व्यवस्था में कृषक को सीधे सरकार का करदाता माना गया। परंतु कठोर और ऊँचे कर ने किसानों की स्थिति दयनीय कर दी।
- महालवाड़ी व्यवस्था (Mahalwari System) – उत्तर-पश्चिमी प्रांत और पंजाब में लागू इस प्रणाली के अंतर्गत राजस्व गांव या महाल की सामूहिक जिम्मेदारी पर वसूला जाता था। इससे किसानों पर सामाजिक दबाव और बोझ और भी बढ़ गया।
कृषि पर प्रत्यक्ष प्रभाव
- कठोर और अचल लगान – राजस्व की मांगें समयानुकूल न बदलतीं और सूखा या अकाल में भी कर वसूली कठोरता से होती थी।
- नकदी फसलों की खेती – अंग्रेजों ने किसानों को नील, कपास, अफीम जैसी वाणिज्यिक फसलें उगाने के लिए बाध्य किया ताकि विदेशी व्यापार को बढ़ाया जा सके।
- खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट – वाणिज्यिक खेती पर बल देने से गेहूं, धान जैसी खाद्यान्न फसलों का उत्पादन घटा और जनता अकाल व भुखमरी की शिकार हुई।
- अकसर होने वाले अकाल – 18वीं और 19वीं शताब्दी में बार-बार भयंकर अकाल पड़े, जिनका मुख्य कारण खाद्यान्न की कमी और कर की कठोर वसूली थी।
- किसानों की निर्धनता और ऋणग्रस्तता – साहूकारों से कर्ज लेकर किसान कर चुकाते, लेकिन ऊँचे ब्याज के कारण हमेशा ऋणग्रस्त बने रहते।
- कृषि में ठहराव – तकनीकी सुधार, सिंचाई और उत्पादन साधनों में कोई निवेश नहीं हुआ। फलस्वरूप कृषि में दीर्घकालीन ठहराव (stagnation) आ गया।
सामाजिक और आर्थिक प्रभाव
- कृषक समुदाय में असंतोष और विद्रोह की भावना पनपी, जैसे नील विद्रोह (1859-60)।
- ग्रामीण समाज का बुनियादी ढांचा टूट गया और किसान अपने ही खेतों में मज़दूर बन गए।
- ग्रामीण ऋण और भूख ने भारतीय कृषि को आत्मनिर्भरता से वंचित कर ब्रिटिश अर्थव्यवस्था का उपकरण बना दिया।
निष्कर्ष:
ब्रिटिश भूमि राजस्व नीतियों ने भारतीय कृषि को शोषण का साधन बना दिया। किसानों से कठोर कर वसूलने और उन्हें नकदी फसलों पर निर्भर करने से खाद्यान्न की कमी, अकाल, गरीबी और ऋणग्रस्तता की स्थितियाँ स्थाई रूप से बढ़ीं। इन नीतियों का सीधा उद्देश्य राजस्व और व्यापारिक लाभ था, न कि भारतीय कृषि का विकास। परिणामस्वरूप ब्रिटिश शासन काल में भारतीय कृषि व्यवस्था लगातार कमजोर और स्थिर होती चली गई, जो औपनिवेशिक शोषण का ज्वलंत उदाहरण है।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न (MCQS) और उत्तर
प्रश्न 1. भारत में स्थायी बंदोबस्त किस क्षेत्रों में लागू किया गया था?
(A) मद्रास और बंबई
(B) पंजाब और अवध
(C) बंगाल, बिहार और उड़ीसा
(D) उत्तर-पश्चिमी प्रांत और पंजाब
उत्तर: (C) बंगाल, बिहार और उड़ीसा
व्याख्या: 1793 में लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा स्थायी बंदोबस्त बंगाल, बिहार और उड़ीसा में लागू किया गया। इसके अंतर्गत जमींदारों को भूमि का स्थायी स्वामित्व मिला और किसानों से कर वसूली का अधिकार दिया गया। इससे कंपनी को स्थायी आय सुनिश्चित हुई, किंतु किसानों को अत्यधिक लगान, शोषण और निर्धनता का सामना करना पड़ा, जिसने भारतीय कृषि की रीढ़ को कमजोर कर दिया।
प्रश्न 2. रैयतवाड़ी व्यवस्था का मुख्य आधार क्या था?
(A) कर वसूली जमींदारों से
(B) कर वसूली सामूहिक महाल से
(C) किसान को सीधे राज्य का करदाता मानना
(D) कर वसूली जमीन नीलाम कर
उत्तर: (C) किसान को सीधे राज्य का करदाता मानना
व्याख्या: रैयतवाड़ी व्यवस्था मद्रास और बंबई प्रांतों में लागू की गई थी। इसमें किसान (रैयत) को राज्य का प्रत्यक्ष करदाता माना गया। यानी उसे सीधे सरकार को लगान देना पड़ता था। कर की दर बहुत अधिक थी और किसी भी परिस्थिति में कर माफी नहीं मिलती थी। इस कारण किसानों की हालत बेहद खराब हो गई और वे गरीबी तथा ऋणग्रस्तता की स्थिति में चले गए।
प्रश्न 3. महालवाड़ी व्यवस्था किस सिद्धांत पर आधारित थी?
(A) व्यक्तिगत कराधान
(B) जमींदार को अधिकार
(C) गांव या महाल की सामूहिक जिम्मेदारी
(D) कंपनी द्वारा प्रत्यक्ष करआरोपण
उत्तर: (C) गांव या महाल की सामूहिक जिम्मेदारी
व्याख्या: महालवाड़ी व्यवस्था उत्तर-पश्चिमी प्रांत और पंजाब में लागू हुई। इसमें एक पूरे गांव या महाल को भूमि का कर सामूहिक रूप से देने की जिम्मेदारी दी गई। इसका अर्थ था कि यदि कोई कृषक असमर्थ हो तो अन्य किसानों पर भी बोझ पड़ता। इससे सामाजिक दबाव और शोषण दोनों बढ़े और कृषक समुदाय गहरे संकट में आ गया।
प्रश्न 4. ब्रिटिश भूराजस्व नीतियों का खाद्यान्न उत्पादन पर क्या प्रभाव पड़ा?
(A) उत्पादन में वृद्धि
(B) स्थिति यथावत रही
(C) खाद्यान्न उत्पादन घटा
(D) खाद्यान्न पर कोई प्रभाव नहीं
उत्तर: (C) खाद्यान्न उत्पादन घटा
व्याख्या: ब्रिटिश शासन ने किसानों को नील, कपास और अफीम जैसी नकदी फसलें उगाने को बाध्य किया ताकि विदेशी व्यापार के लिए कच्चा माल मिल सके। इस कारण गेहूं, धान जैसी आवश्यक खाद्यान्न फसलों का उत्पादन घट गया और जनता को अकाल व भुखमरी का सामना करना पड़ा। इस नीति ने भारत में खाद्यान्न संकट को स्थायी रूप दे दिया।
प्रश्न 5. ब्रिटिश भूराजस्व नीतियों से भारतीय कृषि का कौन-सा प्रमुख परिणाम सामने आया?
(A) आधुनिक तकनीकी विकास
(B) कृषि में ठहराव (Stagnation)
(C) किसानों की स्थिति सुदृढ़
(D) अकालों का अंत
उत्तर: (B) कृषि में ठहराव (Stagnation)
व्याख्या: ब्रिटिश भूमि नीतियाँ राजस्व व व्यापारिक लाभ तक सीमित थीं, जिनमें कृषि विकास के लिए कोई निवेश या तकनीकी सुधार नहीं हुआ। सिंचाई, उन्नत उपकरण और उर्वरकों के अभाव में कृषि धीरे-धीरे ठहराव का शिकार हो गई। किसान निर्धन, ऋणग्रस्त और भूखमरी से पीड़ित रहने लगे। इसलिए ब्रिटिश भूराजस्व नीतियों का भारतीय कृषि पर स्थायी प्रभाव “कृषि ठहराव” के रूप में देखा गया।