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जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण: पर्यावरणीय और सामाजिक चिंताएँ

प्रस्तावना:

जलविद्युत परियोजनाएँ, जिन्हें अक्सर नवीकरणीय और स्वच्छ ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है, दुनिया भर में बिजली उत्पादन के लिए तेजी से अपनाई जा रही हैं। नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को नियंत्रित करके बिजली उत्पन्न करने की यह विधि जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने और जलवायु परिवर्तन से निपटने में सहायक मानी जाती है। हालाँकि, इन परियोजनाओं का निर्माण, विशेषकर हिमालय जैसे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में, महत्वपूर्ण पर्यावरणीय और सामाजिक चिंताओं को जन्म देता है। बांधों और जलाशयों का निर्माण, नदियों के प्रवाह में परिवर्तन, और बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण के कारण इन परियोजनाओं के दूरगामी नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं, जो न केवल प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करते हैं, बल्कि स्थानीय समुदायों के जीवन और आजीविका पर भी गहरा प्रभाव डालते हैं।

जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण से जुड़ी प्रमुख पर्यावरणीय और सामाजिक चिंताएँ:

नदी पारिस्थितिकी तंत्र का विखंडन: बांधों का निर्माण नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित करता है, जिससे नदी का ऊपरी और निचला हिस्सा अलग हो जाता है। यह जलीय जीवों, विशेषकर प्रवासी मछलियों (जैसे महाशीर), के प्रजनन चक्र और आवाजाही को गंभीर रूप से प्रभावित करता है, जिससे उनकी आबादी में गिरावट आती है और नदी पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बिगड़ जाता है।

जैव विविधता का नुकसान: जलाशय बनाने के लिए बड़े क्षेत्रों को पानी में डुबना पड़ता है, जिससे वनस्पति और वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो जाते हैं। कई स्थानिक और लुप्तप्राय प्रजातियाँ अपने आवास खो देती हैं, जिससे उनकी आबादी कम होती है या वे विलुप्त होने के कगार पर पहुँच जाती हैं। वनस्पति का डूबना भी कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन का कारण बन सकता है।

वनोन्मूलन और पर्यावास का नुकसान: परियोजना स्थलों, जलाशयों और पहुँच मार्गों के निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर वनों की कटाई की जाती है। यह न केवल वन आवरण को कम करता है, बल्कि वन्यजीवों के लिए महत्वपूर्ण गलियारों को भी बाधित करता है, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ सकता है। वनों का नुकसान मिट्टी के कटाव को भी बढ़ाता है।

गाद जमाव और जलाशय की क्षमता में कमी: हिमालयी नदियाँ अपने साथ भारी मात्रा में गाद (तलछट) लेकर आती हैं। बांधों के पीछे जलाशयों में यह गाद जमा हो जाती है, जिससे जलाशय की भंडारण क्षमता कम हो जाती है और बांध का जीवनकाल घट जाता है। गाद के जमाव से नदी के निचले हिस्सों में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है, जिससे कृषि और जलीय पारिस्थितिकी प्रभावित होती है।

भूवैज्ञानिक अस्थिरता और आपदा का खतरा: हिमालय जैसे भूकंपीय रूप से सक्रिय और भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों में बड़े बांधों का निर्माण भूवैज्ञानिक अस्थिरता को बढ़ा सकता है। जलाशयों में पानी का भारी दबाव और निर्माण गतिविधियाँ भूस्खलन, मिट्टी के धंसने और यहाँ तक कि भूकंप के जोखिम को भी बढ़ा सकती हैं, जिससे बड़ी आपदाएँ आ सकती हैं।

जल गुणवत्ता में परिवर्तन: जलाशयों में पानी के ठहराव से पानी के तापमान, ऑक्सीजन स्तर और पोषक तत्वों की सांद्रता में बदलाव आता है। यह जलीय पारिस्थितिकी को प्रभावित करता है, शैवाल की वृद्धि (सुपोषण) को बढ़ावा दे सकता है, और पानी की गुणवत्ता को खराब कर सकता है, जिससे यह पीने या कृषि उपयोग के लिए कम उपयुक्त हो जाता है।

सामाजिक चिंताएँ:

स्थानीय समुदायों का विस्थापन और पुनर्वास: जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर भूमि की आवश्यकता होती है, जिससे अक्सर स्थानीय समुदायों, विशेषकर आदिवासी और ग्रामीण आबादी को उनके पैतृक घरों और भूमि से विस्थापित होना पड़ता है। पुनर्वास प्रक्रियाएँ अक्सर अपर्याप्त, धीमी और अनुचित होती हैं, जिससे विस्थापित लोगों को गंभीर सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

आजीविका का नुकसान: विस्थापित समुदायों को न केवल अपने घर खोने पड़ते हैं, बल्कि उनकी कृषि भूमि, वन संसाधनों तक पहुँच, मछली पकड़ने के क्षेत्र और अन्य पारंपरिक आजीविका के साधन भी छिन जाते हैं। इससे गरीबी बढ़ती है और उन्हें नए स्थानों पर अनुकूलन करने में कठिनाई होती है, जहाँ अक्सर रोजगार के अवसर सीमित होते हैं।

सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्थलों का नुकसान: कई जलविद्युत परियोजनाओं के जलाशय क्षेत्रों में धार्मिक स्थल, मंदिर, पवित्र वन, श्मशान और ऐतिहासिक महत्व के स्थान डूब जाते हैं। यह स्थानीय समुदायों की सांस्कृतिक पहचान, आध्यात्मिक विरासत और सामाजिक ताने-बाने को गंभीर रूप से प्रभावित करता है, जिससे गहरा भावनात्मक आघात होता है।

स्वास्थ्य और स्वच्छता के मुद्दे: विस्थापित समुदायों को अक्सर नई, भीड़भाड़ वाली बस्तियों में स्थानांतरित किया जाता है जहाँ पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएँ, स्वच्छता सुविधाएँ और पीने के पानी की आपूर्ति नहीं होती। इससे पानी से संबंधित बीमारियों और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है।

मानवाधिकारों का उल्लंघन और सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन: विस्थापन और पुनर्वास प्रक्रियाओं में पारदर्शिता, उचित परामर्श और न्यायसंगत मुआवजे की कमी अक्सर मानवाधिकारों के उल्लंघन की ओर ले जाती है। समुदायों के टूटने से सामाजिक संरचनाएँ कमजोर होती हैं, जिससे तनाव, संघर्ष और पहचान का संकट उत्पन्न होता है।

निष्कर्ष:

जलविद्युत परियोजनाएँ एक तरफ स्वच्छ ऊर्जा का वादा करती हैं, तो दूसरी तरफ वे गंभीर पर्यावरणीय और सामाजिक लागतों के साथ आती हैं। हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में, इन लागतों का प्रभाव और भी गहरा होता है। इन परियोजनाओं के लाभों और लागतों के बीच संतुलन स्थापित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। भविष्य की जलविद्युत परियोजनाओं की योजना बनाते समय, व्यापक पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) और सामाजिक प्रभाव आकलन (SIA) को अनिवार्य किया जाना चाहिए। इसके साथ ही, विस्थापित समुदायों के लिए न्यायसंगत और सम्मानजनक पुनर्वास सुनिश्चित करना, स्थानीय समुदायों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करना, और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण से बचना आवश्यक है। केवल तभी हम जलविद्युत के लाभों को अधिकतम कर सकते हैं और इसके नकारात्मक प्रभावों को कम कर सकते हैं, जिससे सतत विकास और मानव कल्याण सुनिश्चित हो सके।

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