प्रस्तावना:
उत्तराखंड के इतिहास में चंद राजवंश (कुमाऊँ) और परमार राजवंश (गढ़वाल) न केवल राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहे, बल्कि कला, साहित्य और वास्तुकला के संरक्षण में भी इनकी भूमिका उल्लेखनीय रही। इन दोनों राजवंशों ने अपनी धार्मिक आस्थाओं और सांस्कृतिक नीतियों के माध्यम से मंदिर स्थापत्य, मूर्तिकला तथा साहित्यिक परंपराओं को प्रोत्साहन दिया। जागेश्वर मंदिर समूह और परमार काल के मंदिर इसका जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
चंद शासकों का संरक्षण और जागेश्वर मंदिर समूह: चंद शासकों ने कुमाऊँ क्षेत्र में शैव परंपरा को विशेष प्रोत्साहन दिया। उन्होंने जागेश्वर मंदिर समूह का जीर्णोद्धार करवाया और यहाँ अनेक नए मंदिरों का निर्माण भी करवाया। मंदिरों की स्थापत्य कला नागर शैली पर आधारित थी, जिसमें पत्थर की बारीक नक्काशी और शिल्प का अद्भुत संयोजन मिलता है। यह समूह धार्मिक आस्था के साथ-साथ चंद शासकों की कलात्मक दृष्टि का प्रतीक है।
परमार शासकों का संरक्षण और वास्तुकला: गढ़वाल क्षेत्र में परमार शासकों ने भी मंदिर स्थापत्य और कला को बढ़ावा दिया। उदाहरणस्वरूप, कांडार देवता मंदिर (रुद्रप्रयाग) तथा अन्य परमारकालीन मंदिरों में स्थानीय पत्थर शिल्प और लकड़ी की नक्काशी देखने को मिलती है। इन मंदिरों में धार्मिक प्रतीकों के साथ-साथ गढ़वाल की सांस्कृतिक परंपराओं का भी सुंदर चित्रण मिलता है।
साहित्यिक परंपरा का विकास: चंद वंश के काल में संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य को संरक्षण मिला। मंदिरों और धार्मिक स्थलों पर शिलालेख और दानपत्र लिखवाए गए, जो ऐतिहासिक स्रोत भी हैं। परमार शासकों ने भी स्थानीय लोककथाओं, भक्ति काव्य और गीतों को संरक्षण दिया, जिससे गढ़वाल में सांस्कृतिक चेतना और मजबूत हुई।
कला और मूर्तिकला का अंतर: चंद कालीन मूर्तिकला में शिव-पार्वती, विष्णु और अन्य देवी-देवताओं की पत्थर की प्रतिमाएँ मिलती हैं, जिनमें गढ़ाई की सूक्ष्मता दिखाई देती है। परमारकालीन मूर्तियों में अपेक्षाकृत सरलता और स्थानीय शिल्पकारों की मौलिकता परिलक्षित होती है। इस प्रकार दोनों वंशों की कलात्मक अभिरुचियाँ भिन्न होते हुए भी धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं से जुड़ी रहीं।
सांस्कृतिक संरक्षण का प्रभाव: चंद और परमार शासकों के संरक्षण से न केवल मंदिर स्थापत्य का विकास हुआ, बल्कि जनमानस में धार्मिक एकता और सांस्कृतिक चेतना भी मजबूत हुई। जागेश्वर मंदिर समूह कुमाऊँ की आस्था और शैव परंपरा का केंद्र बना, जबकि गढ़वाल के परमारकालीन मंदिरों ने स्थानीय परंपराओं और लोकसंस्कृति को धार्मिक आधार प्रदान किया।
निष्कर्ष:
इस प्रकार, चंद और परमार शासकों ने कला, साहित्य और वास्तुकला को संरक्षण देकर उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध किया। जहाँ चंद शासकों ने जागेश्वर जैसे भव्य मंदिर समूह का विकास किया, वहीं परमार शासकों ने गढ़वाल में स्थानीय शैली पर आधारित मंदिरों को बढ़ावा दिया। दोनों वंशों की यह परंपरा न केवल धार्मिक जीवन से जुड़ी थी, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और ऐतिहासिक धरोहर के रूप में आज भी जीवित है।