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उत्तराखंड के आधुनिक रंगमंच के सूत्रधार मोहन उप्रेती

प्रस्तावना:

मोहन उप्रेती उत्तराखंड की लोक संस्कृति, रंगमंच और संगीत जगत के एक ऐसे नाम हैं जिन्होंने पारंपरिक लोक कलाओं को आधुनिक रूप देते हुए उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाई। उन्हें उत्तराखंडी लोक संगीत का पुनरुद्धारक माना जाता है और उनका प्रसिद्ध गीत “बेडू पाको बारो मासा” आज भी उत्तराखंड की अस्मिता का प्रतीक है। वे केवल एक संगीतकार नहीं बल्कि लेखक, नाटककार और निर्देशक भी थे, जिन्होंने अपने जीवन को लोक कला और संस्कृति के संरक्षण व प्रसार को समर्पित कर दिया।

लोक संगीत और गाथाओं का पुनरुद्धार: मोहन उप्रेती ने उत्तराखंड के पुराने गाथागीतों, लोकगीतों और मौखिक परंपराओं को संरक्षित करने का कार्य किया। उन्होंने इन्हें न केवल मंच पर प्रस्तुत किया बल्कि उन्हें नई पीढ़ी तक पहुँचाने का प्रयास भी किया। इससे पर्वतीय संस्कृति को एक जीवंत पहचान मिली।

नाट्य संस्कृति में योगदान: उन्होंने अल्मोड़ा और दिल्ली में लोक कलाकार संघ तथा पर्वतीय कला केंद्र की स्थापना की। इन संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने लोक कलाओं को नाटकीय रूप दिया और उत्तराखंड के लोकनाट्यों को आधुनिक रंगमंच से जोड़ा। उनके निर्देशन में ‘रामलीला’, ‘लाल गुलाब’, और ‘इंदर सभा’ जैसी प्रस्तुतियाँ हुईं।

लोकगीत “बेडू पाको बारो मासा”: यह गीत उत्तराखंडी संस्कृति का प्रतीक बना। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी मोहन उप्रेती को ‘बेडू पाको ब्वॉय’ कहकर संबोधित किया। यह गीत उत्तराखंड का अनौपचारिक गान माना जाता है और उनकी सबसे पहचान बनाई गई रचना है।

अंतरराष्ट्रीय प्रसार और प्रशिक्षण: मोहन उप्रेती ने 22 देशों में उत्तराखंडी लोक संस्कृति को प्रस्तुत किया और लगभग 1500 से अधिक कलाकारों को प्रशिक्षण दिया। उन्होंने 1200 से अधिक कार्यक्रमों का मंचन कर उत्तराखंड की कला को वैश्विक पहचान दिलाई। इसके साथ ही, उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और दूरदर्शन के लिए भी कई श्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ तैयार कीं।

पुरस्कार और सम्मान: उनके योगदान को मान्यता देते हुए उन्हें साहित्य कला परिषद (1962), भारतीय नाट्य संघ (1981) और संगीत नाटक अकादमी (1985) सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। साथ ही, उन्हें सुमित्रानंदन पंत पुरस्कार और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘गोल्डन बेयर अवॉर्ड’ भी प्राप्त हुए।

निष्कर्ष:

मोहन उप्रेती केवल एक कलाकार नहीं बल्कि एक आंदोलन थे, जिन्होंने लोक संस्कृति को जीवित रखने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनका काम परंपरा और आधुनिकता का संतुलन था, जिसने लोक कलाओं को नया जीवन दिया। उन्होंने लोकगीतों, गाथाओं और रंगमंच के माध्यम से उत्तराखंड की आत्मा को स्वर और रूप प्रदान किया। आज भी “बेडू पाको बारो मासा” की धुन और मोहन उप्रेती का योगदान लोक संस्कृति के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। उनका जीवन उत्तराखंडी अस्मिता और सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षक के रूप में हमेशा स्मरणीय रहेगा।

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