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उत्तराखंड की भाषा: एक विस्तृत अध्ययन

परिचय

उत्तराखंड अपनी प्राकृतिक सुंदरता, सांस्कृतिक धरोहर और विविध भाषाओं के लिए प्रसिद्ध है। यहां विविधता सिर्फ भौगोलिक संरचना में ही नहीं, बल्कि भाषाओं में भी देखी जा सकती है। उत्तराखंड की भाषाएं इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दर्शाती हैं।

प्रारंभिक अध्ययन

उत्तराखंड की भाषाओं का पहला विस्तृत अध्ययन जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने किया। ग्रियर्सन एक प्रसिद्ध भाषाशास्त्री थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप की भाषाओं का गहन अध्ययन किया। उन्होंने 1894 से 1927 के बीच उत्तराखंड की भाषाओं का वर्गीकरण इस उद्देश्य से किया कि क्षेत्र की भाषाई विविधता को समझा जा सके। इस कार्य में उन्होंने स्थानीय राजस्व विभाग के कर्मचारियों की सहायता ली, जो उस समय के सामाजिक और भाषाई संदर्भ को बेहतर समझते थे।

ग्रियर्सन का योगदान

ग्रियर्सन का कार्य एक सरकारी दस्तावेज के रूप में था, जो बाद में भारतीय भाषाओं के अध्ययन में एक बेंचमार्क बन गया। हालांकि, उनके अध्ययन में भोटांतिक भाषाओं की अनदेखी की गई, जो एक महत्वपूर्ण कमी थी। ग्रियर्सन ने गढ़वाली, कुमाऊँनी, जौनसारी जैसी भाषाओं का वर्गीकरण किया और विभिन्न बोलियों की पहचान की।

भाषाओं का वर्गीकरण

ग्रियर्सन के अध्ययन के बाद, कई अन्य भाषाविदों ने उत्तराखंड की लोकभाषाओं पर महत्वपूर्ण कार्य किया। इनमें डॉ. गोविंद चातक, चक्रधर बहुगुणा, डॉ. हरिदत्त भट्ट और डॉ. डी शर्मा शामिल हैं। उन्होंने इन भाषाओं के स्वरूप, व्याकरण और विशेषताओं का विस्तार से अध्ययन किया, जिससे उत्तराखंड की भाषाई धरोहर का प्रदर्शन किया जा सके।

गढ़वाली भाषा

गढ़वाली भाषा गढ़वाल मंडल के सभी सात जिलों में बोली जाती है। यह भाषा अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक जड़ों के लिए जानी जाती है। गढ़वाली के कई रूप हैं, जैसे कि श्रीनगरिया और नागपुरिया। डॉ. गोविंद चातक ने इसे आदर्श गढ़वाली भाषा कहा, और इसे एक महत्वपूर्ण स्थानीय भाषा के रूप में मान्यता दी।

गढ़वाली भाषा में लोकगीत, कहानियाँ और लोक कथाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखते हैं। गढ़वाली पारंपरिक संगीत और नृत्य इस भाषा की पहचान को और भी मजबूत बनाते हैं।

कुमाऊँनी भाषा

कुमाऊँनी भाषा कुमाऊँ मंडल के छह जिलों में बोली जाती है। इसकी बोलियाँ जिले अनुसार भिन्न होती हैं, जिसमें कुमैया, सोर्याली आदि शामिल हैं। कुमाऊँनी भाषा का विकास भी गढ़वाली की तरह स्थानीय सांस्कृतिक प्रभावों से हुआ है।

कुमाऊँनी के लोक गीत और नृत्य, इस भाषा की सांस्कृतिक विशेषताओं को दर्शाते हैं। कुमाऊँनी में भक्ति, प्रेम और जीवन के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त करने वाले गीतों की भरपूरता इसे एक समृद्ध सांस्कृतिक भाषा बनाती है।

जौनसारी भाषा

जौनसारी भाषा गढ़वाल मंडल के देहरादून जिले के जौनसार भाबर क्षेत्र में बोली जाती है। यह मुख्यतः चकराता, कालसी और त्यूणी तहसीलों में प्रचलित है। जौनसारी भाषा में पंजाबी, संस्कृत, प्राकृत और पाली के कई शब्द शामिल हैं, जो इसे अन्य भाषाओं से विशिष्ट बनाता है।

इसे जौनसार बाबर की लोक सांस्कृतिक पहचान के साथ जोड़कर देखा जाता है। जौनसारी में लोकगीत और नृत्य इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो इसकी समृद्धि को दर्शाते हैं।

जौनपुरी भाषा

जौनपुरी भाषा टिहरी जिले के जौनपुर विकासखंड में बोली जाती है। इस क्षेत्र की विशेष सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ने इसे एक अद्वितीय भाषा के रूप में विकसित किया है। जौनपुरी में हुण्डरु और ढोल जैसे पारंपरिक नृत्य इस भाषा के साथ जुड़े हुए हैं और इसे और भी आकर्षक बनाते हैं।

रवांल्टी भाषा

रवांल्टी भाषा उत्तरकाशी जिले के रवांई क्षेत्र में बोली जाने वाली गढ़वाली की उप बोली है। यह अद्वितीय भाषा अपने स्थानीय शब्दों और विशेष व्याकरण के लिए जानी जाती है। डॉ. चातक ने इस पर पीएचडी की थी, जो इसकी महत्वता को दर्शाता है। रवांल्टी के लोकगीत और कहानियाँ इस भाषा की धरोहर को जीवित रखती हैं।

जाड़ भाषा

जाड़ गंगा घाटी में निवास करने वाली जाड़ जनजाति द्वारा बोली जाने वाली जाड़ भाषा तिब्बती “यू मी” लिपि में भी लिखी जाती थी। यह विशेष भाषा जाड़ जनजाति की संस्कृति और परंपरा को दर्शाती है, जिसमें उनकी जीवनशैली और धार्मिक विश्वासों का प्रभाव देखने को मिलता है।

बंगाणी भाषा

बंगाणी भाषा उत्तरकाशी जिले की मोरी तहसील के बगांण क्षेत्र में बोली जाती है। यह भाषा अपनी विशेष शैली और धुनों के लिए जानी जाती है।

मार्च्छा भाषा

मार्च्छा भाषा चमोली जिले की नीति और माणा घाटियों में भोटिया जनजाति द्वारा बोली जाती है, जिसमें तिब्बती शब्दों का प्रभाव स्पष्ट है।

इन भाषाओं में धाराओं, पर्वतीय कहानियों और त्यौहारों का समावेश होता है, जो कि इनके सांस्कृतिक संदर्भ को और मजबूत बनाता है।

थारू भाषा

थारू भाषा कुमाऊँ मंडल के तराई क्षेत्रों में निवास करने वाली थारू जनजाति की भाषा है। यह कन्नौजी, ब्रज और खड़ी बोली का मिश्रण है। थारू भाषा में शब्दों की समृद्धि और विभिन्न बोलियों का प्रभाव देखा जा सकता है, जो इसे भिन्न बनाता है।

संकटग्रस्त भाषाएँ

यूनेस्को द्वारा बनाई गई सारणी में गढ़वाली और कुमाऊँनी को असुरक्षित वर्ग में रखा गया है। जौनसारी और जाड़ को संकटग्रस्त माना गया, जबकि बंगाणी अत्यधिक संकटग्रस्त है। इन भाषाओं का अस्तित्व खतरे में है, क्योंकि नई पीढ़ी की युवा पीढ़ी इन भाषाओं को सीखने और बोलने में रुचि नहीं दिखा रही है।

भविष्य की चिंता

यदि भाषाओं की वर्तमान स्थिति पर ध्यान नहीं दिया गया, तो आने वाले 10-12 वर्षों में बंगाणी लोक भाषा समाप्त हो सकती है। क्षेत्रीय भाषाओं के संरक्षण की आवश्यकता है, ताकि स्थानीय संस्कृति और पहचान को संरक्षित रखा जा सके।

संरक्षण की आवश्यकता

उत्तराखंड की भाषाएँ सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सरकार, शिक्षण संस्थान और स्थानीय समुदायों को मिलकर इन भाषाओं को संरक्षित करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

इस प्रकार, उत्तराखंड की भाषाएँ सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं हैं, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इन भाषाओं के संरक्षण और प्रोत्साहन की आवश्यकता है ताकि ये आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रह सकें।

उत्तराखंड की भाषाएँ, जो एक समय जीवंत और गतिशील थीं, आज संकट में हैं। समय रहते इनके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। यदि यह प्रयास नहीं किए गए, तो आने वाली पीढ़ियों को यही भाषाएँ केवल किताबों में पढ़ने के लिए मिलेंगी, जबकि उनका वास्तविक अनुभव और जीवन का हिस्सा समाप्त हो जाने का खतरा है।

अंत में, यह कहना उचित होगा कि उत्तराखंड की भाषाओं का अध्ययन न केवल भाषाई दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है। हमें इन भाषाओं को सहेजने और संरक्षित करने के लिए जन जागरूकता फैलानी चाहिए ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी अपनी जड़ों से जुड़ी रहें।

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